Monday, April 14, 2014

सत्यं शिवं सुन्दरम्

सत्यम शिवं सुन्दरम् दूरदर्शन का यह ध्येय वाक्य किसी संस्कृत टेक्स्ट से नहीं लिया गया है किन्तु फ्रांसीसी क्रान्ति के आदर्शो ( दि ट्रू दि गुड एण्ड दि ब्यूटिफुल ) का संस्कृत अनुवाद है जिसका अनुवाद पहली बार आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने किया था । इस नाम की फिल्म भी बनायी गयी । सत्यम शिवम् सुन्दरम् यह फिल्मी गीत भी बहुत प्रसिद्ध रहा ।

Wednesday, November 7, 2012

श्रीछिन्नमस्तका अष्टोत्तरशतनाम स्तोत्रम्

            श्रीछिन्नमस्तका  
        अष्टोत्तरशतनाम स्तोत्रम्


पार्वत्युवाच -        नाम्नां सहस्रमं परमं छिन्नमस्ता-प्रियं शुभम्।
                           कथितं भवता शम्भो सद्यः शत्रु-निकृन्तनम्।।1।।

                           पुनः पृच्छाम्यहं देव कृपां कुरु ममोपरि।
                           सहस्र-नाम-पाठे च अशक्तो यः पुमान् भवेत्।।2।।
                            तेन किं पठ्यते नाथ तन्मे ब्रूहि कृपामय।

 

श्री सदाशिव उवाच -  अष्टोत्तर-शतं नाम्नां पठ्यते तेन सर्वदा।
                                सहस्र्-नाम-पाठस्य फलं प्राप्नोति निश्चितम्

 

विनियोगः- ॐ अस्य श्रीछिन्नमस्ताष्टोत्तर-शत-नाम-स्तोत्रस्य सदाशिवऋषिरनुष्टुप् छन्दः श्रीछिन्नमस्ता देवतामम-सकल-सिद्धि-प्राप्तये जपे विनियोगः।


                                                 ध्यानम्

 

 

 

 

 

 

 

 

प्रत्यालीढ पदां सदैव दधतीं
छिन्नं शिर: कर्तृकां।
दिग्वस्त्रां स्वकबंध शोणित सुधा
धारां पिबन्तीं मुदा
नागाबद्ध शिरोमणि त्रिनयनां
हृद्युत्पलालंकृतां।
रत्यासक्त मनोभवो परिदृढान
ध्यायेत् जवा सन्निभाम्।।1।।

 

दक्षेचाऽति सिता विमुक्त विकुरा
कत्र्री तथा खप्परे।
हस्ताभ्यां दधती रजोगुण भवा
नाम्नाऽपि या वर्णिनी।।
देव्याश्छिन्न कबन्धत: पतद्सृग
धारां पिबंतीं मुदा।
नागाबद्ध शिरोमणिं मनुविदा
ध्येया सदा सा सुरै:।।2।।

 

प्रत्यालीढ पदां कबंध विगलत रक्तं पिबंतीं मुदा।
सैषा सा प्रलये समस्त भुवनं
भोक्तुं क्षमा तामसी।।
शक्ति: साऽपि परात्परा भगवती
नाम्ना परा डाकिनी।
ध्येया ध्यान परै: सदा सविनयं
भक्तेष्ट भूतिप्रदा।।3।।


 
                                                                      स्तोत्रम्

 


ॐ छिन्नमस्ता महाविद्या महाभीमा महोदरी .
चण्डेश्वरी चण्ड-माता चण्ड-मुण्ड्-प्रभञ्जिनी।।4।।

महाचण्डा चण्ड-रूपा चण्डिका चण्ड-खण्डिनी।
क्रोधिनी क्रोध-जननी क्रोध-रूपा कुहू कला ।।5।।

कोपातुरा कोपयुता जोप-संहार-कारिणी ।
वज्र-वैरोचनी वज्रा वज्र-कल्पा च डाकिनी।।6।।

डाकिनी कर्म्म-निरता डाकिनी कर्म-पूजिता।
डाकिनी सङ्ग-निरता डाकिनी प्रेम-पूरिता।।7।।

खट्वाङ्ग-धारिणी खर्वा खड्ग-खप्पर-धारिणी ।
प्रेतासना प्रेत-युता प्रेत-सङ्ग-विहारिणी ।।8।।

छिन्न-मुण्ड-धरा छिन्न-चण्ड-विद्या च चित्रिणी ।
घोर-रूपा घोर-दृष्टर्घोर-रावा घनोवरी ।।9।।

योगिनी योग-निरता जप-यज्ञ-परायणा।
योनि-चक्र-मयी योनिर्योनि-चक्र-प्रवर्तिनी ।।10।।

योनि-मुद्रा-योनि-गम्या योनि-यन्त्र-निवासिनी ।
यन्त्र-रूपा यन्त्र-मयी यन्त्रेशी यन्त्र-पूजिता ।।11।।

कीर्त्या कपर्दिनी: काली कङ्काली कल-कारिणी।
आरक्ता रक्त-नयना रक्त-पान-परायणा ।।12।।

भवानी भूतिदा भूतिर्भूति-दात्री च भैरवी ।
भैरवाचार-निरता भूत-भैरव-सेविता।।13।।

भीमा भीमेश्वरी देवी भीम-नाद-परायणा ।
भवाराध्या भव-नुता भव-सागर-तारिणी ।।14।।

भद्रकाली भद्र तनुर्भद्र-रूपा च भद्रिका।
भद्ररूपा महाभद्रा सुभद्रा भद्रपालिनी।।15।।

सुभव्या भव्य-वदना सुमुखी सिद्ध-सेविता ।
सिद्धिदा सिद्धि-निवहा सिद्धासिद्ध-निषेविता।।16।।

शुभदा शुभगा शुद्धा शुद्ध-सत्वा-शुभावहा ।
श्रेष्ठा दृष्टिमयी देवी दृष्ठि-संहार-कारिणी।।17।।

शर्वाणी सर्वगा सर्वा सर्व-मङ्गल-कारिणी ।
शिवा शान्ता शान्ति-रूपा मृडानी मदनातुरा ।।18।।

इति ते कथितं देवि स्तोत्रं परम-दुर्लभम्।
गुह्याद्-गुह्यतरं गोप्यं गोपनीयं प्रयत्नतः ।।19।।

किमत्र बहुनोक्तेन त्वदग्रं प्राण-वल्लभे।
मारणं मोहनं देवि ह्युच्चाटनमतः परमं .।।20।।

स्तम्भनादिक-कर्म्माणि ऋद्धयः सिद्धयोऽपि च।
त्रिकाल-पठनादस्य सर्वे सिध्यन्त्यसंशयः ।।21।।

महोत्तमं स्तोत्रमिदं वरानने मयेरितं नित्य मनन्य-बुद्धयः।
पठन्ति ये भक्ति-युता नरोत्तमा भवेन्न तेषां रिपुभिः पराजयः ।।22।।

              
                            



Tuesday, October 16, 2012

महाकालेश्वर की दो अत्युत्कृष्ट साधनायें



श्री खड्गरावण महातन्त्र  समस्त तन्त्र शक्ति के नाश के लिए मारण प्रयोगों को नष्ट करने के लिए कृत्याद्रोह नाम के तन्त्र उन्मूलन के लिए इस प्रयोग को किया जाता है I इससे तन्त्र के छ: प्रकार के अभिचार कर्मों का नाश होकर रक्षा की प्राप्ति होती है I

मन्त्र : ॐ नमो भगवते पशुपतये ॐ नमो भूताधिपतये ॐ नमो खड्गरावण लं लं विहर विहर सर सर नृत्य नृत्य व्यसनं भस्मार्चित शरीराय घण्टा कपाल- मालाधराय व्याघ्रचर्मपरिधानाय शशांककृतशेखराय कृष्णसर्प यज्ञोपवीतिने चल चल बल बल अतिवर्तिकपालिने जहि जहि भुतान् नाशय नाशय मण्डलाय फट् फट् रुद्राद्कुशें शमय शमय प्रवेशय प्रवेशय आवेणय आवेणय रक्षांसि धराधिपति रुद्रो ज्ञापयति स्वाहा I

शत्रुओं के प्रयोगों के द्वारा जो लम्बे समय से तरह- तरह के कष्ट झेलते आ रहे हैं और किसी प्रकार भी इससे मुक्ति नहीं मिल पा रही हो तो इस प्रयोग को अवश्य सम्पन्न करें I त्रिलोक विजयी रावण इसी मन्त्र के बल पर ही महारूद्र को प्रसन्न करके उस युग के तन्त्र- मन्त्र वेत्ता, ऋषि- मुनियों का भी सम्राट बना I


श्री शरभमहातन्त्रराज
समस्त तंत्रों में सर्वाधिक घातक तन्त्र शरभ तन्त्र कहलाता है I जब हिरण्यकश्यप का वध करने के उपरान्त भी भगवान नृसिंह का क्रोध शांत नहीं हुआ और तीनों लोकों को खाने को उद्यत हुए तब समस्त देवों के द्वारा प्रार्थना किये जाने पर भगवान शिव नें एक विचित्र पक्षी का रूप धारण किया जिसका मुह उल्लू की तरह, नेत्र में अग्नि, सूर्य एवं चन्द्र का वास था I दो पंखों में जिनके दुर्गा और काली का वास था I कमर के बाद का हिस्सा हिरण की तरह एवं पूंछ शेर की तरह थी I जिनके पेट में व्याधि एवं मृत्यु का वास था ऐसे शरभ रूप पक्षी राज नें नृसिंह भगवान को चोंच मारकर मूर्छित कर दिया I अपने हाथों से उनको पकड़कर आकाश की तरफ उड़ चले I इनको शास्त्रों में आकाश भैरव भी कहा गया है I इस गारुडी विद्या को गुप्त रखना चाहिए I
इस साधना की विशेष विधियां आकाश भैरव कल्प, शरभार्चापारिजात, आशुगरुड़ इत्यादि तन्त्र ग्रंथों में दी गयी हैं I कृष्णपक्ष की अष्टमी से लेकर चतुर्दशी तक इसकी साधना श्रेष्ठ मानी गयी है I
विनियोग : ॐ अस्य मन्त्रस्य श्रीवासुदेव ऋषि: जगतीछन्द:, कालाग्निरूद्र शरभ देवता, खं बीजं, स्वाहा शक्ति:, मम सर्वशत्रु क्षयार्थे सर्वोपद्रव शमनार्थे जपे विनियोग: I


II ध्यानम् II
विद्युज्जिह्वं वज्र नखं वडवाग्न्युदरं तथा
व्याधिमृत्युरिपुघ्नं चण्डवाताति वेगिनम् I
हृद् भैरव स्वरूपं च वैरिवृन्द निषूदनं
मृगेन्द्रत्वक्- छरीरेSस्य पक्षाभ्यां चञ्चुनारव: I
अघोवक्त्रश्चतुष्पाद उर्ध्व दृष्टिश्चतुर्भुज:
कालान्त- दहन- प्रख्यो नीलजीमूत- नि:स्वन: I
अरिर्यद् दर्शनादेव विनष्टबलविक्रम:
सटाक्षिप्त गृहर्क्षाय पक्षविक्षिप्त- भूभृते I
अष्टपादाय रुद्राय नमः शरभमूर्तये II
मन्त्र : ॐ खें खां खं फट् प्राणग्रहासि प्राणग्रहासि हुं फट् सर्वशत्रु संहारणाय शरभशालुवाय पक्षिराजाय हुं फट् स्वाहा I

इस मन्त्र को छ: महीने तक प्रतिदिन दस मालाओं का जाप करके एक माला के द्वारा अर्थात 108 आहुतियों से नित्यप्रति हवन करें, इससे इस मन्त्र का एक पुरश्चरण हो जाता है और इस प्रकार के 18 पुरश्चरण करने पर मन्त्र सिद्ध होने लगता है I
इस शरभ तन्त्र के अनेक मन्त्र हैं, अनेक प्रयोग हैं I संसार में रोग निवारण से लेकर शत्रु को नष्ट करने तक, समृद्धिवान बनने तक सभी कार्य इसके द्वारा संभव हैं I वास्तव में यह स्वयं में महातंत्र है I
जैसे शत्रु नाश के लिए शत्रु के पैरों की मिट्टी से पुतला बनाकर, प्राणप्रतिष्ठा करके आँक या धतूरे की जड़ में दबा करके उसके सामने बैठकर यदि इस मन्त्र का 125000 जाप किया जाए तो उस पुतले के साथ जो किया जाए शत्रु को वैसे ही पीड़ा प्राप्त होती है I यदि उस पुतले को शमशान के अंगारे से तपा दिया जाएं तो शत्रु को कभी न ठीक होने वाला बुखार हो जाता है और यदि पिघले हुए लाख से उसको लपेटकर यदि उसे आँक की लकड़ियों में जला दिया जाए तो तीन दिन में शत्रु नष्ट हो जाता है I
  • आकर्षण के लिए क्लीं बीज से संपुटित करके इस मन्त्र का जाप करना चाहिए I
  • शत्रुओं के मध्य झगडे कराने के लिए मन्त्र के दोनों तरफ रूद्र बीज "क्षौं" या "हौं" लगा करके जाप करना चाहिए I
  • शत्रुओं के उच्चाटन के लिए मन्त्र के दोनों तरफ वायु बीज "यं" या "हं" लगा करके जाप करना चाहिए I
  • मोक्ष प्राप्ति के लिए "ऐं" बीज व "चिंतामणि बीजमन्त्र" से पुटित करके जाप करें I

Saturday, February 18, 2012

जन्मदिवसस्य शुभाशयाः

जन्मदिवसस्य शुभाशयाः
 स्वस्त्यस्तु ते कुशलमस्तु चिरायुरस्त
 विद्या विवेक कृति कौशल सिद्धिरस्तु।
 ऐश्वर्यमस्तु बलमस्तु राष्ट्रभक्तिस्सदास्तु
 वंशः सदैव भवताहि सुदिप्तोस्तु॥


(श्लोकः)
नृत्तान्तेसूत्रजालं डमरुनिनदनान्नाट्यराजोमुनिभ्यः 
प्रादादुद्बोधनार्थंचतुरधिकदश स्थायि सत्शब्दतत्त्वम्। 
प्रत्याहारप्रणेतापणिनसुतनुतो यस्य पुण्येहशैवी 
रात्रिर्नोमाघभव्या व्रतरजनिरियं भूतिदासाऽऽपदोऽव्यात्।।  

Friday, January 27, 2012

महीनों के नाम पूर्णिमा के दिन चन्द्रमा इस नक्षत्र होता है
चैत्र चित्रा , स्वाति
वैशाख विशाखा , अनुराधा
ज्येष्ठ ज्येष्ठा , मूल
आषाढ़ पूर्वाषाढ़ , उत्तराषाढ़
श्रावण श्रवण , धनिष्ठा, शतभिषा
भाद्रपद पूर्वभाद्र , उत्तरभाद्र
आश्विन रेवती , अश्विन , भरणी
कार्तिक कृतिका , रोहणी
मार्गशीर्ष मृगशिरा , आर्द्रा
पौष पुनवर्सु ,पुष्य
माघ अश्लेशा, मघा
फाल्गुन पूर्व फाल्गुन , उत्तर फाल्गुन , हस्त

Friday, January 20, 2012

दशानन विरचितं ताण्डव स्तोत्रम्


   जटाटवीगल्लज्जलप्रवाहपावितस्थले 
गलेवलम्ब्य लम्बितां भुजंगतुंगमालिकाम् ।
डमद् डमद् डमद्डमन्निनादवद्डमर्वयमं
चकार चण्डताण्डवं तनोतु नः शिवः शिवम् ।।
 
जटाकटाहसम्भ्रमभ्रमन्निलिम्पनिर्झरी –
विलोलवीचिवल्लरी विराजमानमूर्द्धनि
धगद्धगद्धगज्ज्वल्लललाटपट्टपावके
किशोरचन्द्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं मम् ।।
 
धराधरेन्द्रनन्दिनीविलासबन्धुबन्धुर –
स्फुरदिगन्तसन्ततिप्रमोद-मानमानसे ।
कृपाकटाक्षधोरिणीनिरूद्धदुर्धरापदि
क्कचिद्दिगम्बरे मनो विनोदमेतु वस्तुनि ।।
 
जटाभुजंगपिंगलत्फुरत्फणामणिप्रभा –
कदम्ब कुङ्कुमद्रवप्रलिप्तदिग्वधूमुखे ।
मदान्धसिन्धुरस्फुरत्वगुत्तरीयमेदुरे
मनो विनोदमद्भुतं बिभर्तु भूतभर्तरि ।।
 
सहस्रलोचनप्रभृत्य​शेषलेखशेखर –
 प्रसूनधूलिधोरणी विधू सराङ्घ्रि पीठभूः
भुजंगराजमालया निबद्धजाटजूटकः
श्रियै चिराय जायतां चकोरबन्धुशेखरः ।।
 
ललाटचत्वरज्वलद्धनञ्जयस्फुलिंगभा –
निपीतपञ्चसायकं नमन्निलिम्पनायकम् ।
सुधामयूखलेखया विराजमानशेखरं
महाकपालि सम्पदे शिरो जटालमस्तु नः ।।
 
करालभालपट्टिकाधगद्धगद्धगज्ज्वल –
द्धनञ्जयाहुतीकृत प्रचण्डपन्चसायके।
धराधरेन्द्रनन्दिनीकुचाग्रचित्रपत्रक –
प्रकल्पनैक शिल्पिनि त्रिलोचने रतिर्मम​।।
 
नवीनमेघमण्डली निरुद्धदुर्धरस्फुरत्
कुहूनिशीथिनी तमः प्रबन्ध बद्ध कन्धरः।
निलिम्प निर्झरीधरस्तनोतु कृत्ति सिन्धुरः
कलानिधानबन्धुरः श्रियं जगद्धुरन्धरः ।।
 
प्रफुल्लनीळपंकजप्रपञ्चकालिमप्रभा –
वलम्बिकण्ठकन्दलीरूचि – प्रबद्धकन्धरम् ।
स्मरच्छिदं पुरच्छिदं भवच्छिदं मखच्छिदं
गजच्छिदान्धकच्छिदं तमकच्छिदं भजे ।।
 
अखर्वसर्वमङ्ळाकलाकदम्बमञ्जरी –
रसप्रवाहमाधुरीविजृम्भणामधुव्रतम् ।
स्मरान्तकं पुरान्तकं भवान्तकं मखान्तकम्
गजान्तकान्धकान्तकं तमन्तकान्तकं भजे ।।
 
जयत्व दभ्र विभ्रम भ्रमद्भुजङ्गमश्वसद्
विनिर्गमत्क्रम स्फुरत्करालभाल हव्यवाट्।
धिमिद्धिमिद्धिमिदध्वनन्मृदंङगतुंङ्गमंङ्ळ –
ध्वनिक्रम प्रवर्तित प्रचण्डताण्डवः शिवः॥
 
दृषद्विचित्रतल्पयोर्भुजङ्गमौक्तिकस्रजो –
र्गरिष्ठरत्नलोष्ठयोः सुहृद्विपक्षपक्षयोः ।
तृणारविन्दचक्षुषोः प्रजामहीमहेन्द्रयोः
समप्रवृत्तिकः कदा सदाशिवम् भजाम्यहम ।।
 
कदानिलिम्पनिर्झरीनिकुञ्जकोटरे वसन् –
विमुक्तिदुर्मतिः सदा शिरः स्थमञ्जलिं वहन् ।
विलोललोललोचनो ललामभाललग्रकः
शिवेतिमन्त्रमुञ्चरन् कदा सुखी भवाम्यहम् ।।
 
इमं हि नित्यमेवमुक्तमुक्तमोत्तमं स्तवं –
पठन्स्मरन्ब्रुवन्नरो विशुद्धिमेति सन्ततम् ।
हरे गुरौ सुभक्ति माशु याति नान्यथा गतिं
विमोहनं हि देहिनां सुशङ्करस्य​ चिंतनम् ।।
 
पूजावसान समये दशवक्त्रगीतम् –
यः सम्भु पूजनपरं पठति प्रदोषे ।
तस्य स्थिरां रथगजेन्द्रतुरङ्गयुक्तां –
लक्ष्मीं सदैव सुमुखीं प्रददाति शम्भुः॥   

Wednesday, January 18, 2012

पानीयं पातुमिच्छामि त्वत्तः कमललोचने।
यदि दास्यसि नेच्छामि न दास्यसि पिबामि चेत्॥
अत्र यण् सन्धेः प्रयोगः दर्शनीयः।दासी+असि=दास्यसि।अत्र श्लोके यण् सन्धिः वैचित्र्यम् उत्पादयति।॥१॥

ददाह हनुमताऽरामः सीता हर्षनिर्भरा।
राक्षसा रुरुदुः सर्वे हा हाऽऽराम हतो हतः॥
अत्र आराम =प्रासाद​:,भवनः वा इत्यस्मिन् स्थाने राम इति अर्थस्य भ्रमः भवति।अत्रापि सन्धि वैचित्र्यम् अस्ति॥२॥
पाण्डवानां सभामध्ये दुर्योऽधनः समागतः।
तस्मै हिरण्यं च गां च ददुः आभरणानि च​॥ 
अत्र पाण्डवानां सभामध्ये दुर्योधनः धनाय गतवान् इति न मन्तव्यम्।अपितु यः अति दरिद्रः आसीत् =दुर्+यः+अधनः,तं ते धनानि दत्तवन्तः इति मन्तव्यम्।३॥ 


प्रहेलिकां पृच्छामः किं- 
अपदो दूरगामी च साक्षरो न च पण्डितः।
अमुखः स्फुट्वक्ता च यः जानाति स पण्डितः॥
अर्थात् पाद विहीनः अस्ति तथापि बहु दूरं गच्छति।साक्षरोऽपि सन् पण्डितः नास्ति।मुखं नास्ति तथापि स्फुट्तया वदति।यः उत्तरं जानाति सः पण्डितः अस्ति॥४॥
 वटवृक्षो महानेष मार्गमवरुध्य तिष्ठति।
 तावत् त्वया न गन्तव्यं यावदन्यत्र न गच्छति॥

अत्र वटु शब्दस्य सम्बोधनस्य रुपं वटो इति अस्ति।वटो इति रूपस्य पश्चात् ॠक्षः अस्ति।उभयोः सन्धिः भवति तदा वटवृक्षः इति भवति।वटवृक्षः इत्युक्ते वटतरुः इति भ्रमः भवति॥५॥ 

केशवं पतितं दृष्ट्वा द्रोणः हर्षमुपागतः।
रुदन्ति कौरवा सर्वे हा! हा! केशव केशव॥६॥

अर्थात् जलमध्ये यदा शवस्य प्रवाहः भवति तदा काकः हर्षं प्राप्नोति।किन्तु ये कौरवा: शृगालाः वा भवन्ति ते तु अति गभीरे जले गन्तुं न पारयन्ति अतः दूरादेव पश्यन्ति रोदनं वा कुर्वन्ति इति आशयः वर्तते।॥६॥


 राज्याभिषेके जलमानयन्त्याः,कुक्ष्याचितो हेमघटस्तरुण्यः।
 सोपानमासादि चकार शब्दं टटं टटं टं टटटं टटं टम्॥७॥

एकवारं विक्रमादित्यसभायां सर्वे विद्वांसः उपविष्टाः आसन्।राजा विक्रमादित्यः किंचित विनोदमुद्रायाम् आसीत्।सः अवदत् भोः मम मनसि कस्यचित् पद्यस्य पादमेकम् अस्ति।किन्तु सम्पूर्णं पद्यं न जानामि किं अस्ति ।तर्हि टटं टटं टं टटटं टटं टम् इति पादं स्वीकृत्य पद्यं निर्मयन्तु भवन्तः।सर्वेऽपि निरुत्तराःएकैकस्य मुखं पश्यन्तः आसन्।यदा राजा कालिदासं सम्बोधयति तदा सः उत्थाय उपर्युक्तं पद्यं श्रावयित्वा स्वकीयं आशुकवित्वं दर्शयति।एतादृशी प्रतिभा
सर्वेषां भवेद्भारतवर्षे इति सरस्वतीं देवीं प्रार्थयामि।
॥७॥

कश्चित् प्रत्युत्पन्नमति: कविः भगवतः श्रीकृष्णस्य दानशीलतायाः विषये वैचित्त्र्येण वर्णयति तद्यथा-
आदौ नकारः परतो नकारः,मध्ये नकारेण हतो दकारः।
एवं नकारत्रयसंस्थितस्य का दान शक्तिः खलु नन्दनस्य॥८॥
कविः वदति हे नन्दन​! भवतः (नामस्य) अग्रे नकारः(न दास्यामि)अस्ति।भवतः (नामस्य) अन्ते अपि नकारः(न दास्यामि)इति अस्ति।मध्ये यद्वराकः दकारः(दास्यामि)अस्ति सोऽपि नकारेण हतोऽस्ति,पृष्ठतः वा क्रियते।अतः भवति किमपि दानशक्तिः नास्ति इति सूच्यते॥८॥ 


केदारपोषणरताः? काशीतलाम्बुवाहिनी गङ्गा?।
कं संजघान क​ृष्णः? कं बलवन्तं न बाधते शीतम्?॥९॥

अत्र प्रश्नवाक्येषु एव उत्तरं पिहितमस्ति यथा के दारपोषणरताः?=केदारपोषणरताः(अर्थात् क्षेत्रनलिकाः क्षेत्राणां पोषणे (सेचने)रताः भवन्ति।शीतलजलवाहिनी गङ्गा का?=काशीतलाम्बुवाहिनी अर्थात् या काश्यां वहति सा (शीतल जलयुक्ता)नदी गङ्गा अस्ति।क​ृष्णः कं संजघान​? क​ृष्णः कंसं संजघान​।कं बलवन्तं शीतं न बाधते?कंबलवन्तं (यस्य पार्श्वे कंबलं भवति तं) शीतं न बाधते।इत्येवं प्रकारेण प्रश्नोत्तरं एकस्मिन्नेव वाक्ये निगूढं भवति। 

एकोनाविंशतिः स्त्रीणां स्नानार्थं नदीं गतः।
विंशतिः पुनरायाता  चैको व्याघ्रेण भक्षितः॥१०॥
अत्र पद्यं पठित्वा मनसि स्त्रीणां ऊनविंशतिः स्नानाय नदीं प्रति गतः इति आगच्छति।किन्तु यदि स्त्रीणां ऊनविंशतिः स्नानार्थं गतः पुनः विंशतिः आगतः इति अर्थः नैव संगच्छते।अतः नृ शब्दस्य तृतीयान्त  रूपं ना इति मन्तव्यं विंशतेः प्राक्। तर्हि अर्थः भवति एकेन पुरुषेण सह विंशतिस्त्रीणां समूहः गतः।तत्र पुरुषः तु व्याघ्रेण भक्षितः किंतु स्त्रीणां समूहः कुशलतया प्रत्यावर्तितः॥१०॥



यदि जानाति तद वदतु
वृक्षाग्रवासी न च पक्षिराजः त्रिनेत्रधारी न च शूलपाणिः।
त्वग्वस्त्रधारी न च सिद्धयोगी जलं च बिभ्रत् न घटो न मेघः।।
अर्थात् वृक्षस्य उपरि तिष्ठते किन्तु खगो नास्ति। नेत्रत्रयेण युक्तोऽपि सन् शिवः नास्ति।त्वग्वस्त्रं धरति तथपि सिद्धयोगी नास्ति।स्वस्य अन्तः भागे जल बिभ्रत् अपि न घटः न च मेघ एव​।

एक चक्षुर्न काकोऽयं बिलमिच्छन्न पन्नगः।
क्षीयते वर्धते चैव न समुद्रो न चन्द्रमा॥१२॥
 सूचिका।सूचिकायामपि एकमेव छिद्रम्वर्तते अतः अकनयना अस्ति सा।बिले छिद्रे प्रवेशमिच्छति किन्तु सा पन्नगः तु नास्ति।तया तस्याम्वा वृद्धिक्षयौ अपि भवतः किन्तु सा उदधिः नास्ति। 
किमिच्छन्ति नराः काश्यां भूपानां को रणे हितः।
को वन्द्यः सर्व देवानां दीयतामेकमुत्तरम्॥१३॥
काश्यां सर्वोऽपि जनः मृत्युमिच्छति।रणे भूपानां जयः हितोऽस्ति।अत्र प्रथमवाक्ये "मृत्यु"पदमानीय द्वितीयवाक्यगत "जय"पदेन योजयेत् चेत् "मृत्युञ्जय"इति लभ्यते। एष देवो(शिवः) देवानां सर्वेषां वन्द्यः=वन्दनीयो भवति खलु।अतः "मृत्युञ्जयः"इति समाधानम्। Iragavarapu Narasimhacharya